दशमूलारिष्ट

20

आयुर्वेद में दशमूल की बहुत प्रशंसा की गई है। इस प्रकार की जड़ों वाला योग होने से इसे ‘दशमूल’ कहते हैं। ये दस जड़े इन वनस्पतियों की होती है - बेल, गम्भारी, पाटल, अरणी, अरलू, सरिवन, पिठवन, बड़ी कटेरी, छोटी कटेरी और गोखरू । इनके शास्त्रीय नाम क्रमशः इस प्रकार हैं 

निरोगधाम पत्रिका सदस्यता

एक साल की सदस्यता

दो साल की सदस्यता

पांच साल की सदस्यता

आयुर्वेद में दशमूल की बहुत प्रशंसा की गई है। इस प्रकार की जड़ों वाला योग होने से इसे ‘दशमूल’ कहते हैं। ये दस जड़े इन वनस्पतियों की होती है -

बेल, गम्भारी, पाटल, अरणी, अरलू, सरिवन, पिठवन, बड़ी कटेरी, छोटी कटेरी और गोखरू । इनके शास्त्रीय नाम क्रमशः इस प्रकार हैं-

बिल्व, श्रीपर्णी, पाटला, अग्निमन्थ, श्योनाक, शालपर्णी, प्रश्निपर्णी, वार्ताकी, कण्टकारी और गोक्षुर ।

यह योग ‘दशमूलारिष्ट’ नाम से बाटल के पेकिंग में बना बनाया आयुर्वेदिक दवाओं के स्टोर्स से झण्डू, ऊंझा, डाबर, धूतपापेश्वर (पनवेल) या बैद्यनाथ का बना हुआ खरीदा जा सकता है। सूखे काढ़े के रूप में कुटा पिसा हुआ यह योग कच्ची देशी दवाओं की दुकान से खरीदा जा सकता है। इस औषधि के घटक द्रव्य (फार्मूला) इस प्रकार हैं -

घटक द्रव्य - सभी दसों जड़ों का मिश्रण 2 किलो, चित्रक छाल 1 किलो, पुष्कर मूल 1 किलो, लोध और गिलोय 800-800 ग्राम, आंवला 640 ग्राम, जवासा 480 ग्राम, खैर की छाल या कत्था, विजयसार और गुठली रहित बड़ी हरड़ तीनों- 320-320 ग्राम, कूट, मजीठ, देवदारु, वायविडंग, मुलहठी, भारंगी, कबीटफल का गूदा, बहेड़ा, पुनर्नवा की जड़, चव्य, जयमासी, फूल प्रियंगु, सारिवा, कालाजीरा, निशोथ, रेणुका बीज, (सम्भालू बीज), रास्ना, पिप्पली, सुपारी, कचूर, हल्दी, सोया (सूवा) पद्म काठ, नागकेशर, नागरमोथा, इन्द्र जौ, काकड़ासिंगी विदारीकन्द, शतावरी असगन्ध और वराहीकन्द, सब 80-80 ग्राम । मुनक्का ढाई किलो। शहद सवा किलो, गुड़ 20 किलो । धाय के फूल सवा किलो । शीतलचीनी, सुगन्धबाला या खस, सफ़ेद चन्दन, जायफल, लौंग, दालचीनी, इलायची, तेजपात, पीपल, नागकेशर - प्रत्येक 80-80 ग्राम और कस्तूरी 3 ग्राम।

निर्माण विधि - दशमूल से लेकर वराहीकन्द तक की औषधियों को मात्रा के अनुसार वजन में लेकर मोटा मोटा जौकुट करके मिला लें और जितना सबका वज़न हो उससे आठ गुने पानी में डाल कर उबालें। चौथाई जल बचे तब उतार लें। मुनक्का अलग से चौगुने अर्थात 10 लिटर पानी में डाल कर उबालें जब साढे सात लिटर पानी शेष बचे तब उतार लें। अब दोनों काढ़ों (औषधि और मुनक्का) को मिलाकर इसमें शहद और गुड़ डाल कर मिला लें। अब धाय के फूल से लेकर नागकेशर तक की 11 दवाओं को खूब महीन पीस कर काढ़े के मिश्रण में डाल दें। इस मिश्रण को मिट्टी या लकड़ी की बड़ी कोठी में भर कर मुंह पर ढक्कन लगा कर कपड़ मिट्टी से ढक्कन बन्द कर 40 दिन तक खा रहने दें। 40 दिन बाद खोल कर छान लें और कस्तूरी पीस कर इसमें डाल दें। कस्तूरी न भी डालें तो हर्ज नहीं। अब इसे बोतलों में भर दें। दशमूलारिष्ट तैयार है । यह फार्मूला लगभग 35 से 40 लिटर दशमूलारिष्ट तैयार करने का है। कम मात्रा में बनाने के लिए सभी घटक द्रव्यों और जल की मात्रा को उचित अनुपात में घटा लेना चाहिए।

मात्रा और सेवन विधि - दशमूलारिष्ट 2-2 बड़े चम्मच आधा कप पानी में घोल कर, सुबह शाम भोजन के बाढ़ पीना चाहिए।

उपयोग - दशमूलारिष्ट बहुत सी व्याधियों को नष्ट करने वाला और प्रसूता स्त्रियों के लिए अमृत के समान गुण करने वाला श्रेष्ठ योग है। भैषज्य रत्नावली के अनुसार यह संग्रहणी, अरुचि, शूल, श्वास, खांसी, भगन्दर, वात व्याधियों, क्षय, वमन, पाण्डुरोग, कामला, कुष्ठ, प्रमेह, मन्दाग्नि, समस्त उदर रोग, शक्कर, पथरी, मूत्रकृच्छ तथा धातुक्षीणता आदि व्याधियों को नष्ट करता है एवं दुबले व कमज़ोर मनुष्यों को पुष्टि एवं स्त्रियों के गर्भाशय सम्बन्धी दोष दूर कर उन्हें सन्तान प्रदान करता है। यह शरीर में बल, तेज और वीर्य की वृद्धि करता है।

‘आयुर्वेद सार संग्रह’ और ‘रस तन्त्रसार व सिद्ध प्रयोग संग्रह’ नामक ग्रन्थों में ‘भैषज्य रत्नावली’ का समर्थन करते हुए अनुभूत प्रयोगों के आधार पर इसके और उपयोग एवं लाभ बताये हैं जिनके आधार पर कुछ लाभदायक एवं विश्वसनीय प्रयोग प्रस्तुत किये जा रहे हैं।

महिलाओं के लिए - प्रसूता स्त्रियों के लिए यह योग बहुत ही हितकारी है और प्रसव के बाद इसका सेवन करने से प्रसूता ज्वर, खांसी, अग्निमांद्य कमजोरी आदि व्याधियों से बची रहती है, प्रसूति रोगों से रक्षा होती है और स्तनों में दूध बढ़ता है। प्रसव के दिन से ही सुबह शाम 2-2 चम्मच ढुवा, उबाल कर ठण्डा किये हुए आधा कप पानी में घोल कर 40 दिन तक सेवन करने से प्रसूता सभी व्याधियों से बची रह सकती है और प्रसव के पूर्व से भी अच्छी शारीरिक स्थिति प्राप्त कर सकती है। प्रसूताओं को इसका सेवन अवश्य करना चाहिए।

यह स्त्रियों के गर्भाशय की कमजोरी और अशुद्धि को दूर कर गर्भाशय को पुष्ट, बलवान और शुद्ध करता है साथ ही शरीर को भी पोषण प्रदान कर पुष्ट व शक्तिशाली बनाता है लिहाज़ा जिन महिलाओं का गर्भाशय गर्भ धारण करने में असमर्थ हो, गर्भाशय की शिथिलता, निर्बलता, शोथ या अन्य विकृति के कारण बार-बार गर्भस्राव या गर्भपात हो जाता हो, गर्भाधान ही न होता हो, यदि गर्भकाल पूरा हो भी जाए तो सन्तान रोगी, दुबली पतली व कमज़ोर हो तो ऐसी सभी व्याधियों को नष्ट करने के लिए दशमूलारिष्ट का प्रयोग अत्युत्तम और निस्सन्देह गुणकारी है। प्रसव के बाढ़ नवप्रसूता की कोख में उठने वाले ‘मक्कल शूल’ के लिए दशमूल बहुत ही लाभदायक है । यह योग इतना उपयोगी और गुणकारी है कि प्रसूता स्त्री का ‘सूतिका ज्वर’ जैसे भयंकर रोग से भी रक्षा करता है।

सूतिका ज्वर यदि ठीक न हो तो स्त्री के शरीर और स्वास्थ्य के लिए तपेदिक के समान नाशक और घातक सिद्ध होता है। यह ज्वर अति भयंकर होता है। और आसानी से पीछा नहीं छोड़ता। इस ज्वर में शरीर का टेम्प्रेचर 103 से 105 डिग्री तक चला जाता है जिससे प्रसूता स्त्री भयंकर प्यास, व्याकुलता, सिर दर्द, बेहोशी आदि से त्रस्त हो जाती है। हालात बिगड़ जाएं तो सन्निपात के लक्षण प्रकट हो जाते हैं जिसेमें अण्टशण्ट बोलना, दांत किटकिटाना, उछल कूद करना आदि शामिल है। दशमूलारिष्ट इन सबसे रक्षा करता है।

दूध की कमी - प्रसूता को दूध कम उतरता हो तो 10 ग्राम शतावरी को जौ कुट (मोटा मोटा) कूट कर पाव भर पानी में उबालें। जब एक चौथाई पानी बचे तब उतार कर छान लें और ठण्डा कर लें। इसमें एक बड़ा चम्मच भर दशमूलारिष्ट डाल लें। इसे 2-3 तीन सप्ताह इसी विधि से सुबह-शाम या भोजन के बाढ़ पीने से प्रसूता के स्तनों में खूब दूध आने लगता है।

खांसी का दौरा - खांसी का खूब दौरा पड़ता हो, खांसते खांसते बुरा हाल हो जाता हो, पीठ व पेट में, खांसने से, दर्द होने लगता हो, कफ निकल जाने पर आराम मालूम देता हो तो दशमूलारिष्ट एक बड़े चम्मच भर मात्रा में बराबर भाग जल में मिलाकर 3-3 घण्टे से पिलाना चाहिए । इससे कफ आसानी से निकल जाता है और खांसी का दौरा समाप्त हो जाता है। वातजन्य खांसी में इसके सेवन से शर्तिया आराम होता है। सूखी खांसी चलना और मुश्किल से कफ निकलना वातजन्य खांसी की पहचान है। तैल खटाई और ठण्डी चीजों का सेवन बन्द रखना चाहिए। सन्निपात के ज्वर में भी इसी विधि से यह प्रयोग करना चाहिए।

भगन्दर और घाव - भगन्दर रोग में गुदा में घाव हो जाते हैं जिनसे पस बहता रहता है और छिद्रों से मल भी निकलने लगता है। आपरेशन कराने पर भी जब यह रोग ठीक नहीं होता तब दशमूलारिष्ट के सतत सेवन से इसमें लाभ होता है। घाव सूख जाते हैं और रोग से मुक्ति मिल जाती है।

वातव्याधि एवं अस्थि क्षय - वात जन्य रोग जैसे जोड़ों में दर्द, कमर और पीठ में दर्द होना, पूरे शरीर में हड़फूटन और हलका बुखार जैसा लगना, हड्डी कमज़ोर होना, चलने फिरने से थकावट और पैरों में दर्द होना आदि व्याधियों के लिए दशमूलारिष्ट लाभदायक है।

निषेध - पित्त कुपित हो, मुंह में छाले हों, गरम-गरम पानी जैसे पतले दस्त लग रहे हों, प्यास और जलन का अनुभव होता हो तो दशमूलारिष्ट सा सेवन नहीं करना चाहिए।

दशमूल काढ़ा

काढ़ा विधि - प्रातः काल 2 कप पानी में सूखा दशमूल काढ़ा 20 ग्राम मात्रा में डाल कर तब तक उबालें जब तक पानी टूट कर चौथाई भाग यानी आधा कप न रह जाए। अब उतार कर छान लें और सुबह खाली पेट ही इसे पी लें। इसके आधा घण्टा बाद तक कुछ खाएं और पिएं नहीं।

उपयोग - इस काढ़े का उपयोग अलग-अलग अनुपान के साथ करने से अलग अलग व्याधियां नष्ट होती हैं। इसका सेवन करने से किसी प्रकार की हानि नहीं होती फिर भी पित्त प्रकोप, मुखपाक, दाह, अतिसार (पतले दस्त), अति पसीना,व्याकुलता, मुंह सूखना, प्यास लगना आदि लक्षणों वाली प्रसूता स्त्री या अन्य किसी भी स्त्री पुरुष को इसका सेवन नहीं करना चाहिए। गर्भाशय शोधन और प्रसूता को स्वास्थ्य प्रदान करने के लिए इस काढ़े का प्रयोग घरेलू इलाज के तौर पर दीर्घकाल से किया जाता रहा है। मासिक धर्म शुरू होने की तारीख से 2-3 दिन पहले से इस काढ़े का सेवन शुरू करके जब तक मासिक स्राव बिल्कुल बन्द न हो जाए तब तक इस काढ़े का सेवन करके फिर बन्द कर देना चाहिए। ऐसा 3-4 माह तक करने से मासिक धर्म की अनियमितता और शिकायतें दूर होती हैं। इस समय होने वाला कुक्षि शूल (पेट में दर्द होना) बन्द होता है।

इस काढ़े में 1-2 ग्राम पिप्पली का चूर्ण मिला कर सेवन करने से वातश्लेष्म ज्वर, सन्निपात ज्वर, सूतिका रोग, अपच, पार्श्वशूल (कोख का दर्द) श्वास, खांसी, तन्द्रा तथा कण्ठ एवं हृदय के अवरोध में लाभ होता है। सायटिका का दर्द दूर करने के लिए भुनी हुई हींग 1 रत्ती और पुष्कर की जड़ का चूर्ण 2 ग्राम मिला कर सेवन करना चाहिए। काढ़ा चूंकि ताज़ा और सघन होता है अतः दशमूलारिष्ट की अपेक्षा जल्दी प्रभाव करता है।