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अनियमित और अनुचित ढंग से खान पान करने वाले प्रायः उदर रोग और पाचन संस्थान से सम्बन्धित व्याधियों से ग्रस्त बने रहते हैं। ऐसी स्थिति में द्राक्षासव का सेवन बहुत हितकारी सिद्ध होता है। द्राक्षासव का निर्माण प्रायः सभी बड़े आयुर्वेदिक औषधि निर्मातागण करते हैं इसलिए यह औषधि प्रायः आयुर्वेदिक औषधि बेचने वाले छोटे बड़े स्टोर्स पर उपलब्ध रहती है।
अनियमित और अनुचित ढंग से खान पान करने वाले प्रायः उदर रोग और पाचन संस्थान से सम्बन्धित व्याधियों से ग्रस्त बने रहते हैं। ऐसी स्थिति में द्राक्षासव का सेवन बहुत हितकारी सिद्ध होता है। द्राक्षासव का निर्माण प्रायः सभी बड़े आयुर्वेदिक औषधि निर्मातागण करते हैं इसलिए यह औषधि प्रायः आयुर्वेदिक औषधि बेचने वाले छोटे बड़े स्टोर्स पर उपलब्ध रहती है। प्रसिद्ध आयुर्वेदिक ग्रन्थ ‘योगरत्नाकर’ में इस औषधि का विवरण दिया गया है। इस औषधि के घटक द्रव्य इस प्रकार हैं -
घटक द्रव्य - बड़ी मुनक्का, मिश्री व शहद तीनों - 5-5 सेर । धाय के फूल 64 तोले, शीतल मिर्च, तेजपात, दालचीनी, इलायची, नागकेशर, लौंग, जायफल, काली मिर्च, पीपल, चित्रक मूल, चव्य, पीपलामूल और निर्गुण्डी के बीज - सभी 13 द्रव्य 4-4 तोले । जल 4096 तोला।
निर्माण विधि - मुनक्का खराब, सूखी व सड़ी हुई न हो यह जांच करके ऐसी मुनक्का निकाल कर अलग कर दें और अच्छी मुनक्का पांच सेर वजन में लेकर कुचल लें और पानी में डाल कर उबालें। जब जल चौथाई भाग शेष बचे तब उतार कर मसल छान लें। इसमें मिश्री पीस कर शहद के साथ डाल दें और सभी 13 दवाओं को मोटा मोटा (जौ कुट) कूट कर डाल दें। थोड़े कपूर, अगर, चन्दन को जला कर इसकी धुनी एक बरतन में देकर इस बरतन में यह मिश्रण डाल कर बरतन का मुंह ढक्कन से अच्छी तरह से बढ़ करके ढक्कन की दरार गीले आटे से बन्द करके कपड़े से बांध कर रख दें और 45 दिन तक रखा रहने दें। इसके बाद इसे खोल कर इसे छान लें और बाटलों में भर लें । द्राक्षासव बनाने की विधि और इसके घटक द्रव्यों में थोड़ी फेर बदल के साथ अन्य ग्रन्थों में इसका विवरण पढ़ने को मिलता है। किसी भी विधि और नुस्खे के अनुसार द्राक्षासव को बनाया जा सकता है। हमने निर्माण विधि प्रस्तुत तो कर दी हैं फिर भी हमारी राय यह है कि जो चीज़ बाज़ार में मिल जाती हो उसे बाज़ार से खरीद कर प्रयोग कर लेना चाहिए क्योंकि घर पर किसी औषधि को बनाने की योग्यता, क्षमता, कुशलता और विधि-विधान की जानकारी प्रत्येक व्यक्ति को नहीं हो सकती।
मात्रा व सेवन विधि - इसे दो से तीन बड़े चम्मच भर मात्रा में सम भाग जल मिला कर भोजन के बाद दोनों वक्त सेवन करना चाहिए।
उपयोग - यह औषधि अरुचि, आलस्य, थकावट व बेचैनी दूर कर स्फूर्ति व उत्साह बढ़ाती है, मन को प्रफुल्लित रखती है, मल शुद्ध करती है और गहरी नींद लाती है। यह जठराग्नि बढ़ाने वाली, बलवीर्य वर्द्धक और शरीर को पोषण प्रदान करती है। किसी भी रोग में शारीरिक शक्ति की रक्षा करने व निर्बलता दूर करने के लिए इसका सेवन हितकारी होता है। यह एक प्रकार से सौम्य और धीमी गति से शरीर को शक्ति व स्फूर्ति देने वाला ऐसा टानिक है जो पाचन क्रिया को बल देकर, मल विर्सजन में सहयोग देकर और स्नायविक संस्थान को शक्ति देकर शरीर की निर्बलता और शिथिलता दूर करता रहता है।
रक्तार्श (खूनी बवासीर) पित्तार्श (पित्त जन्य बवासीर), उदावर्त (पेट में गैस बढ़ना), रक्त गुल्म (रक्त का पिण्ड या ग्रन्थि बनना), कृमि (पेट में छोटे छोटे कीडे होना), नेत्र रोग, शिरो रोग, गले के रोग, ज्वर, आम विकार, पाण्डू व कामला आदि रोग का नाश करने में द्राक्षासव श्रेष्ठ सहायक औषधि है। आम ज्वर, जो कि आहार का उचित पालन न होने पर होता है, द्राक्षासव के सेवन से पाचन का सुधार होने से दूर होता है। ज्वर के दौरान होने वाली खांसी भी इसके सेवन से ठीक होती है। पित्त कुपित होने से उत्पन्न विकारों का शमन करने के लिए इसका सेवन हितकारी है।
इसी से मिलती जुलती एक दवा है द्राक्षारिष्ट जो बनाई तो इसी विधि से जाती है पर इसके घटक द्रव्यों में थोड़ा अन्तर होता है। इसमें शहद व मिश्री के स्थान पर गुड़ का उपयोग होता है। आसव और अरिष्ट में कोई विशेष अन्तर नहीं है। चरक संहिता (सूत्र. 25/49 ) में 84 प्रकार के आसवों का विवरण प्रस्तुत करते हुए आसव की परिभाषा इस प्रकार से की गई है -
एषामासवानामासुतत्वादासवसंज्ञा ।
अर्थात् इन आसवों का आसव नाम इसलिए रखा गया है कि ये आसूत अर्थात् सन्धान क्रिया (Fermentation) के द्वारा निर्मित होते हैं। अरिष्ट के विषय में कहा है कि जो चिरकाल तक खराब न हो उसे अरिष्ट कहते हैं। बहरहाल आसव और अरिष्ट पर्यायवाची शब्द हैं।
यहां एक इशारा कर देना आवश्यक है कि आसव अरिष्ट शराब नहीं हैं। शराब और आसव अरिष्ट की जाति एक होते हुए भी आसव अरिष्ट औषधि गुणों से युक्त होने के कारण शराब से अलग गुण धर्म वाले होते हैं। आयुर्वेद ने मद्य और आसव के घटक द्रव्य, अवयव गुण और दोनों क्रिया में भेढ़ बताया है अतः आसव या अरिष्ट पीने का मतलब शराब पीना नहीं है। इसलिए जिन्हें भूख खुल कर न लगती हो, पाचन ठीक न होता हो, गैस ट्रबल और कब्ज़ रहता हो, शरीर दुर्बल रहता हो, थकावट और सुस्ती बनी रहती हो ऐसे किशोर नवयुवा प्रौढ़ और वृद्ध अर्थात् किसी भी उम्र के स्त्री पुरुष द्राक्षासव का नियमित रूप से 2-3 माह तक सेवन करें। छोटे बच्चों के लिए भी यह बहुत गुणकारी और उपयोगी है।